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समीक्षा: उपन्यास ‘पहचान’

जद्दोजेहद पहचान पाने की.....                                                                                         -जाहिद खान किसी भी समाज को गर अच्छी तरह से जानना-पहचाना है, तो साहित्य एक बड़ा माध्यम हो सकता है। साहित्य में जिस तरह से समाज की सूक्ष्म विवेचना होती है, वैसी विवेचना समाजशास्त्रीय अध्ययनों में भी मिलना नामुमकिन है। कोई उपन्यास, कहानी या फिर आत्मकथ्य जिस सहजता और सरलता से पाठकों को समाज की जटिलता से वाकिफ कराता है। वह सहजता, सरलता समाजशास्त्रीय अध्ययनों की किताबों में नही मिलती। यही वजह है कि ये समाजशास्त्रीय अध्ययन अकेडमिक काम के तो हो सकते हैं, लेकिन आम जन के किसी काम के नहीं। बहरहाल, भारतीय मुसलिम समाज को भी यदि हमें अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो साहित्य से दूजा कोई बेहतर माध्यम नहीं। डाॅ. राही मासूम रजा का कालजयी उपन्यास आधा गांव, शानी-काला जल, मंजूर एहतेशाम-सूखा बरगद और अब्दुल बिस्मिल्लाह-झीनी बीनी चदरिया ये कुछ ऐसी अहमतरीन किताबें हैं, जिनसे आप मुसलिम समाज की आंतरिक बुनावट, उसकी सोच को आसानी से समझ सकते हैं। अलग-अलग कालखंडों में लिखे गए, ये उपन्यास गोया कि आज

मेकिंग ऑफ पहचान

इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने पहले उपन्यास 'पहचान' को धारावाहिक रूप से प्रस्तुत करूँगा.        हिंदी उपन्यास 'पहचान' कविता कहानियाँ लिख रहा था और उपन्यासकार बनने की तड़प मन में थी. मेरा इरादा लंबे उपन्यास लिखने का नहीं था. लघु-उपन्यास या उपन्यासिका ही मेरा टारगेट था. ऐसा काम्पेक्ट कथानक की पाठक एक बार घुसे तो फिर पूरा पढ़ कर ही रीते.... जैसा की दोस्तोयेव्स्की के उपन्यासों में होता है... जैसा की निर्मल वर्मा के उपन्यासों में होता है... जैसा की अमृता प्रीतम के उपन्यासों में होता है... जैसा की कृष्ण सोबती के उपन्यासों में होता है... ऐसा तो था मेरा स्वप्न...और उसके लिए मुझे बड़ी कड़ाई से अपने लिखे को काटना भी था.... जब मैं सिंगरौली की कोयला खदानों में काम करता था, तभी 'पहचान' का आइडिया मन में आया था. ये बात सन १९९० की है. तब तक मैं कवी से कथाकार बन चूका था. कथानक, हंस, कथाबिम्ब, अक्षरपर्व में कहानियां पब्लिश हो चुकी थीं. इरादा था की अब उपन्यास में हाथ साफ़ किया जाए. मैंने एक रजिस्टर लिया और उसके पहले पन्ने पर उपन्यास का खाका खींचा. मुझे मंटो