इस ब्लॉग के माध्यम से मैं अपने पहले उपन्यास 'पहचान' को धारावाहिक रूप से प्रस्तुत करूँगा.
हिंदी उपन्यास 'पहचान'
हिंदी उपन्यास 'पहचान'
कविता कहानियाँ लिख रहा था और उपन्यासकार बनने की तड़प मन में थी.
मेरा इरादा लंबे उपन्यास लिखने का नहीं था.
लघु-उपन्यास या उपन्यासिका ही मेरा टारगेट था.
ऐसा काम्पेक्ट कथानक की पाठक एक बार घुसे तो फिर पूरा पढ़ कर ही रीते....
जैसा की दोस्तोयेव्स्की के उपन्यासों में होता है...
जैसा की निर्मल वर्मा के उपन्यासों में होता है...
जैसा की अमृता प्रीतम के उपन्यासों में होता है...
जैसा की कृष्ण सोबती के उपन्यासों में होता है...
ऐसा तो था मेरा स्वप्न...और उसके लिए मुझे बड़ी कड़ाई से अपने लिखे को काटना भी था....
जब मैं सिंगरौली की कोयला खदानों में काम करता था, तभी 'पहचान' का आइडिया मन में आया था. ये बात सन १९९० की है.
तब तक मैं कवी से कथाकार बन चूका था. कथानक, हंस, कथाबिम्ब, अक्षरपर्व में कहानियां पब्लिश हो चुकी थीं. इरादा था की अब उपन्यास में हाथ साफ़ किया जाए.
मैंने एक रजिस्टर लिया और उसके पहले पन्ने पर उपन्यास का खाका खींचा.
मुझे मंटो याद हो आये और मैंने रजिस्टर में कलम चलाने से पहले '७८६' लिखा.
जैसा की मंटो करते थे.
उपन्यास का मैंने शीर्षक सोचा और बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा
-----छलांग----
इसमें युनुस की कहानी शुरू हुई.
फिर काम रुक गया.
विभागीय परीक्षाएं आती रहीं और कविता कहानियां समय खाती रही.
फिर १९९३ में मेरी शादी हो गई.
१९९४ में फिर मैं रजिस्टर के पन्ने उलटने पलटने लगा.
युनुस के साथ अब सलीम का चरित्र खुला.
युनुस के खाला खालू आये और उपन्यास ४० पन्ने का हो गया.
फिर मैं भूमिगत कोयला खदान में प्रशिक्षण के लिए आ गया. डेढ़ साल उसमे लगे.
रजिस्टर के पन्नों में कैद युनुस भी गुप-चुप ढंग से आकार लेता रहा.
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